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मैगज़ीन

जब दुकानदार ने मुझे मोटी होने का एहसास दिलाया

मैं ग्यारह साल की थी जब मुझे पहली बार पीरियड्स आए और जैसे-जैसे मेरा शरीर बदला, मुझे नए कपड़े खरीदने भी जाना पड़ा। मुझे याद है कि कैसे अचानक मैं ‘मीडियम’ से ‘लार्ज’ साइज की हो गई।

वही दुकानदार जो पहले मुझे छोटे साइज़ के कपड़े लाकर देता था, अब मुझे घूरते हुए मेरी मम्मी से कहने लगा, “इसको ‘लार्ज’ साइज़ आएगा ना मैम?”। अफसोस की बात ये है कि उस वक्त—90’s के दशक में—बॉडी और इसके बारे में कोई जल्दी बात नहीं करना चाहता था। फिर भी, लेबल्स और लुक्स से जज करना ऐसा था जैसे कोविड-19 वायरस बिना मास्क और एंटीबॉडी के। इससे कोई नहीं बचता था। तो हां, मैं समझती हूँ, 90’s के बच्चों! हमने भी अपने समय में बहुत सारी बेकार बातें देखी हैं, है ना?

अब चलिए आज की कहानी सुनते हैं। 2024 में, एक दिन मैं अपने बेटे को स्कूल से वापस ला रही थी जब हम रास्ते में एक कॉफी शॉप पर रुके। दूकान वालों ने  “हैलो मैम, हैलो सर, xyz कैफ़े में आपका स्वागत है!” कहा और हमने अपना ऑर्डर दिया। तभी वेटर ने फिर से वही सवाल पूछा—”मैम, कौन से साइज में कॉफ़ी दूँ – रेगुलर, टॉल या ग्रांडे?” मैंने जीवन में कितनी कॉफी पी है, इसका हिसाब नहीं है, लेकिन उस सर्दी के दिन 2023 में, अचानक मेरे अंदर की ग्यारह साल की कनिका ने मुझसे सवाल किया, “क्या तुम अब भी साइज जैसी साधारण चीज़ को लेकर परेशान हो?”

मैंने इस सवाल पर सोचा और फिर एहसास हुआ कि कैसे मेरे माता-पिता ने अनजाने में मुझे मेरे वजन को लेकर अजीब और असहज महसूस कराया, खासकर मेरी टीनएज में। उनका इरादा तो अच्छा था, और वे मुझसे बहुत प्यार करते थे, फिर भी इन छोटी छोटी चीज़ों ने मेरे दिमाग में अपने शरीर को लेकर शर्म का एहसास पैदा कर दिया।

काश सभी माता-पिता और बच्चे समझें कि साइज तो सिर्फ साइज है। बस इतना ही। जैसे ग्रेड्स से बच्चे की समझ, क्षमता या भविष्य का पता नहीं चलता, वैसे ही ‘स्मॉल, मीडियम, लार्ज’ आदि किसी भी इंसान के आत्म-मूल्य या आत्म-विश्वास को नहीं दिखाते। ये तो बस कपड़ों के साइज होते हैं, ताकि वो हमें सबसे अच्छे तरीके से फिट हो सकें।

कपड़े हमारे शरीर में फिट होने चाहिए, न कि हमारा शरीर कपड़ों में फिट होने के लिए बना हो। यह कब से शुरू हुआ? ये तो समझ से बाहर है!

हम हर नई पीढ़ी के साथ नए मुद्दों का सामना करते रहेंगे (जैसे वो मशीनें जो शायद भावनाएं महसूस कर सकती हैं; आर्टिफिशियल इमोशंस, वाह!) – पर माता-पिता के रूप में हम जो सबसे अच्छा कर सकते हैं, वो है बच्चों से बात करना – उस तरीके से जो उन्हें समझ आये! सिर्फ उनसे बात हे मत करो बल्कि उनकी सुनो भी! 

जैसे, अगर आपका हमेशा खुश रहने वाला बच्चा अचानक चुप सा लगने लगे, तो उसे “बुरा मूड” कहकर नज़रअंदाज़ करने के बजाय, उससे कुछ ऐसे सवाल पूछें जिनके बहुत से उत्तर हो सकते हैं – जैसे, “मैंने देखा कि तुम कुछ चुप चुप हो गए हो। क्या तुम इसके बारे में बात करना चाहोगे?” 

बच्चों की भावनाओं को समझने के लिए उनमे होने वाले छोटे बदलावों पर ध्यान देना भी जरूरी है—जैसे झुकी हुई मुद्रा, आँखों से संपर्क न करना, या अचानक चुप रह जाना—और इसे जज करने की बजाय, उत्सुकता से जानने की कोशिश करना चाहिए। अगर आपको लगता है कि कुछ गड़बड़ है, तो समय से इसे सुलझाना, इसे बड़ा मुद्दा बनने से रोक सकता है। 

और अगर स्थिति आपके अनुभव से बाहर लगे, तो याद रखें,, प्रोफेशनल मदद लेने में कोई शर्म नहीं है। आजकल काउंसलर, ऑनलाइन संसाधन, और कम्युनिटी ग्रुप्स हैं, जो जरूरत पड़ने पर मदद के लिए तैयार रहते हैं। आखिरकार, छोटे-छोटे बदलावों को पहचानना या समझना अक्सर हमारे बच्चों के मन को समझने की ओर पहला कदम हो सकता है।

सभी माता-पिता इस बात से सहमत होंगे कि आखिर में हमें जो चाहिए, वो है हमारे बच्चों का खुश, स्वस्थ, सक्षम, और अच्छा इंसान बनना। हैना?

आइए हम सुंदर बच्चों को एक सुंदर भविष्य के लिए बढ़ावा दें!

कनिका कुश, टीनबुक की पैरेंट एक्सपर्ट, टीनएजर्स को एक मजेदार और रिलेटेबल तरीके से पैरेंट्स की सोच समझने का मौका देती हैं, जिससे हम जान सकें कि हमारे माता-पिता के मन में क्या चल रहा है।

एडिटर का नोट:

टीनबुक के हमारे नए कॉलम में आपका स्वागत है, जहाँ अब मम्मी पापा  को मिल रहा है माइक! टीनबुक जहाँ भारतीय किशोरों की मदद करता है, वहीं यहाँ मम्मी पापा भी अपनी बातें शेयर कर सकते हैं, अनुभव बाँट सकते हैं, और अपने किशोर बच्चों के साथ कदम मिलाने की कोशिश में सलाह भी दे सकते हैं। यह वो पैरेंट्स का नज़रिया है जिसकी आपको ज़रूरत थी, पर शायद आपको पता नहीं था! चाहे टीन स्लैंग समझना हो, मूड स्विंग्स से निपटना हो, या बस नए ट्रेंड्स के साथ चलना हो—यहाँ सब आसान है! 

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