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मेरी डायरी

पर वो मुझे समझते ही नहीं!

16 साल की मेहर द्वारा टीनबुक के माय डायरी कॉलम के लिए लिखा गया यह किस्सा बताता है कि कैसे अपने पैरेंट्स से समझे जाने की चाह और उनके साथ की जाने वाली शांत, ईमानदार बातचीत, उनकी और हमारी दुनिया के बीच के फासले को कम कर सकती है।

सच कहूँ तो, मुझे याद भी नहीं कि मैंने ये लाइन कितनी बार ज़ोर से कही है या मन ही मन चिल्लाई है – “वो मुझे समझते ही नहीं!”। ये ज़्यादातर तब होता है जब मम्मी-पापा से कोई बातचीत फिर से लेक्चर, गलतफहमी या बस खामोशी में खत्म हो जाती है। हर बार जब मैं अपने दिल की बात करने बैठती हूँ, तो जाने कैसे मुद्दा बदल जाता है। एक पल मैं बस कह रही होती हूँ “थक गई हूँ” और अगले पल वो बोलते हैं कि मैं आलसी हूँ या टाइम वेस्ट कर रही हूँ। बात भटक जाती है, और जिस वजह से मैंने बात शुरू की थी, वो गायब हो जाती है।

धीरे-धीरे मैंने ये बातचीत करना ही कम कर दिया। वजह ये नहीं कि मैं बात नहीं करना चाहती, बल्कि इसलिए कि मैं उसके बाद होने वाले ड्रामे से बचना चाहती थी। लेकिन सच तो ये है कि हम टीनएजर्स को अपने पैरेंट्स से बात करनी ज़रूरी है। हमें उनका सपोर्ट चाहिए, हमें चाहिए कि वो कहें कि उलझन, थकान या कन्फ्यूजन होना ठीक है। हमें उनका भरोसा और हौसला चाहिए। लेकिन जब भी कोशिश करती हूँ, कुछ न कुछ गड़बड़ हो जाती है। जैसे मेरे शब्द और उनका मतलब, रास्ते में कहीं खो जाते हैं।

जब मैं कहती हूँ, “थक गई हूँ”, तो मेरा मतलब ये नहीं होता कि मैं कामचोर हूँ। मेरा मतलब होता है कि मैं दिमाग़ से थक चुकी हूँ – स्कूल, दोस्त, फैसले, उम्मीदें और कभी-कभी खुद से भी। जब मैं प्राइवसी या स्पेस मांगती हूँ, तो मैं कुछ छुपा नहीं रही होती, बस अपने ख्यालों के साथ अकेले रहने का समय चाहती हूँ। लेकिन इसे भरोसे का मसला बना दिया जाता है। और उनसे दूर रहना भी मदद नहीं करता। बस एक गिल्ट रह जाती है – जैसे मैं उन्हें निराश कर रही हूँ, जैसे वो मुझसे नाराज़ हैं। और धीरे-धीरे ये गिल्ट और फ्रस्ट्रेशन मिलकर मुझे ये महसूस कराते हैं कि मैं काफी नहीं हूँ… और शायद उनकी नज़रों में कभी हो भी नहीं पाऊँगी।

लेकिन अंदर से मैं जानती हूँ कि वो पूरी तरह ग़लत भी नहीं हैं।

उन्होंने एक बिल्कुल अलग दुनिया में परवरिश पाई है – बिना सोशल मीडिया के नोटिफिकेशन, कम फैसले लेने, और खुद की तुलना करने के लिए कम लोग। उनकी अपनी मुश्किलें थीं, बस अलग तरह की। शायद इसी वजह से उन्हें समझना मुश्किल है कि आज हमारे लिए अपनी पहचान ढूंढना कितना जटिल है, जब हर सेकंड दुनिया बदल रही है। उन्होंने 17 साल की उम्र में पाँच बड़े फैसले लेने का दबाव नहीं झेला, और न ही ये महसूस किया कि हमेशा “ज़्यादा करो, बेहतर बनो” का प्रेशर है।

कभी-कभी लगता है वो मदद करना चाहते हैं, बस उन्हें तरीका नहीं पता। और हमें भी मदद चाहिए, लेकिन वैसे नहीं जैसे वो देते आए हैं। तो जब वो हमारे फोन चेक करते हैं या कहते हैं कि हम गलत रास्ते पर हैं, तो वो हमें अटैक जैसा लगता है। और फिर हम “ठीक है” कह देते हैं, भले ही अंदर से पता हो कि ठीक नहीं है – बस बातचीत खत्म करने के लिए।
और ऐसे में ये दूरी बढ़ती जाती है।

लेकिन मुझे नहीं लगता कि ये हमेशा ऐसे ही रहना चाहिए। हम एक-दूसरे के खिलाफ नहीं हैं – बस चीज़ों को अलग नजरिए से देखते हैं। वही दुनिया है, बस देखने का एंगल अलग है।

शायद पास आने का एक ही तरीका है – फिर से बात करना शुरू करना। सच में बात करना। बहस नहीं, “तुम मुझे नहीं समझते” कहना नहीं – बस शांति से अपना दिल खोलना। और सच में सुनना भी (चाहे मुश्किल हो)। हम चीज़ें ऐसे भी कह सकते हैं जो उन्हें समझ आएं-जैसे लिखकर, आराम के वक्त बात करके, या फिर कोई मीम या वीडियो भेजकर जो हमारी फीलिंग्स को हमारे शब्दों से बेहतर समझा दे।

ये परफेक्ट नहीं होगा, तुरंत भी नहीं होगा। लेकिन ये एक शुरुआत होगी।
क्योंकि मैं जानती हूँ – चाहे वो दक्षिण देखें और मैं उत्तर, हम दोनों एक ही आसमान देख रहे हैं।
और शायद, बस शायद, यही सबसे अहम है।

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