एक रात, एक पास्ता और ढेर सारे सवाल
हमारी टीन राइटर तुषारिका ने टीनबुक के माय डायरी कॉलम के लिए ये दिल छू लेने वाली कहानी लिखी है। इसमें वो बताती हैं कि बिना पैरेंट्स के सपोर्ट के बड़ा होना कैसा लगता है। जले हुए पास्ता से लेकर फादर्स डे की उदासी तक, तुषारिका ने अकेलेपन, अनकहे बोझ और उस उम्मीद के बारे में लिखा है जो उन्हें आगे बढ़ने की ताकत देती है।
प्रिय डायरी,
आज फिर वही हुआ। दादी को देर तक काम करना था, और मैं डिनर के लिए खुद ही जूझ रही थी। पास्ता बनाने की कोशिश की, लेकिन वो जल गया। बात सिर्फ पास्ता जलने की नहीं है, बात है किसी का साथ पाने की। कोई जो गलती होने पर मदद करे, या बस दिनभर की बातें सुन ले। लगता है बाकी सबके पास वो कोई है… बस मेरे पास नहीं।
आस-पास देखती हूँ, तो दोस्त अपने पैरेंट्स के साथ डिनर करते हैं। मैं खुद को रील्स देखकर कुछ ध्यान बटाने की कोशिश करती हूँ, पर फिर वहां भी फैमिली फोटो दिख जाती हैं।
दो दिन पहले फादर्स डे था। सब बाहर जाकर सेलिब्रेट कर रहे थे, और मैं यहाँ बैठी लीनियर इक्वेशंस सॉल्व कर रही थी। है न अजीब बात?
जब खुद को बाहर से देखा, तो लगा कितने लोग मेरी तरह चुपचाप जूझ रहे होंगे, जिनकी कहानियां रोज़मर्रा की मुस्कानों के पीछे छुपी होती हैं। बिना पैरेंट्स के सपोर्ट के बड़ा होना ऐसा है जैसे अदृश्य बोझ उठाकर चलना। स्कूल, डिनर, टाइम पर उठना—छोटी-छोटी चीजें भी बड़ी चुनौती बन जाती हैं।
किसी का गाइड करना, हाल पूछना, बस साथ होना… जब ये सब नहीं होता तो एक अजीब-सी खालीपन रह जाती है। कई बार लगता है जैसे पूरी दुनिया का बोझ कंधों पर है—स्कूल, घर का काम, और ये डर कि कहीं गलती न हो जाए। सोचती हूँ, मेरी दुनिया इतनी अलग क्यों है।
पैरेंट के बना ये इमोशनल खालीपन डराने वाला होता है। खुद पर, अपनी काबिलियत पर शक होने लगता है। भरोसा करना भी मुश्किल लगता है। क्योंकि जब आपके पास कोई साथ न हो, तो आप खुद को सिखा देते हो कि उम्मीद ही मत रखो।
ये असुरक्षा बार-बार सामने आ जाती है, खासकर तब जब छोटे फैसले भी पहाड़ जैसे लगने लगते हैं। किससे सलाह लूँ? किसे अपने डर बताऊँ? अक्सर लगता है जैसे मैं अकेली हूँ, और ये बोझ बहुत भारी हो जाता है।
मुश्किल है, यार। पर्सनल बातें संभालना, इमोशंस कंट्रोल करना, और फिर भी “नॉर्मल” बने रहना—हंसना, घुलना-मिलना, ठीक दिखना।
कभी-कभी बच्चा बस चाहता है कि कोई उसकी बहादुरी के पीछे झांक कर देखे। जैसे जब कोई पूछता है, “आपके पापा या मम्मी क्या करते हैं?” और फिर कहता है, “ओह, सॉरी फॉर योर लॉस।” और मैं रोज़ की तरह कहती हूँ, “नहीं नहीं, ठीक है।” पर क्या सच में ठीक है?
फिर भी, इन सबके बावजूद मैं एक चीज़ पकड़कर रखती हूँ—उम्मीद। उम्मीद कि एक दिन इन मुश्किलों से ताकत मिलेगी, घाव भरेंगे। और ये दुनिया हमारे जैसे बच्चों के लिए थोड़ी दयालु और समझदार होगी।
क्योंकि हम सिर्फ अपनी परेशानियां नहीं हैं। हम वो जवान दिल हैं जो ज़िंदगी समझने की कोशिश कर रहे हैं, हर दिन चुपचाप लड़ाई लड़ रहे हैं।
कल एक नया दिन है। मैं उसे थोड़ी और हिम्मत के साथ फेस करने की कोशिश करूँगी और खुद को याद दिलाऊँगी कि शायद, बस शायद, मैं उतनी अकेली नहीं हूँ जितना महसूस करती हूँ।
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