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फीलिंग्स एक्सप्रेस

इस बार की दिवाली थोड़ी अलग लग रही है…

इस बार की दिवाली कुछ अजीब सी लग रही थी… समझ नहीं आ रहा था क्यों। फिर कुछ ऐसा हुआ (या किसी ने कुछ कहा) कि सब बदल गया। अवनी ने हमारे साथ अपनी कहानी शेयर की।

पिछले साल दिवाली पर हमारे घर में सबसे ज़्यादा आवाज़ पटाखों की नहीं थी, वो थी मेरे कज़िन रोहन की, जो कार्ड्स में हारकर चिल्ला रहा था, “चीटिंग हुई है!” नानी की, जो किचन से चिल्ला रही थीं, “जूते पहनकर अंदर मत आना!” मामा की, जो अपनी “साइंटिफिक टेक्निक” से रॉकेट जलाने निकले थे और अपनी मूछें ही जला बैठे थे।
पूरा घर मस्ती, शोर, और हंसी से भरा हुआ था।

वो थी हमारी घर वाली दिवाली।

लेकिन इस बार? सब अलग है।न बाहर गाड़ियों की लाइन, न कज़िन्स का तकिया-मैट्रेस पर झगड़ा, न तली हुई चकली की खुशबू… बस हल्की सी रोशनी और बहुत सन्नाटा।

फोन पर “आज क्या प्लान है?” वाले मेसेज नहीं, बस “सॉरी यार, इस बार नहीं आ पाऊँगा।”

रोहन कॉलेज के लिए बेंगलुरु चला गया। बुआ के घर में कुछ टेंशन चल रही है, तो वो नहीं आ रहे। और मेरा छोटा भाई, जो हर गाने पर रोबोट की तरह नाचता था, अब बस कहता है, “8 बजे गेमिंग टूर्नामेंट है। डू नॉट डिस्टर्ब।”

मैंने खुद को बिज़ी रखने की कोशिश की, मम्मी की सफाई में मदद की, लालटेन टांगी, यहाँ तक कि इंस्टा-स्टाइल में दीये भी सजाए। लेकिन बीच में ही रुक गई।बालकनी में खड़ी थी… और लगा – ये दिवाली दिवाली जैसी लग ही नहीं रही।

क्या मैं ओवरथिंक कर रही हूँ? क्या बड़े होने पर त्योहारों का मज़ा चला जाता है? या सबको कभी न कभी ऐसा लगता है, बस कोई बोलता नहीं?

माँ की एंट्री
मैं कुछ नहीं बोली, पर माँ समझ गईं। वो दीयों का डिब्बा लेकर आईं, और बोलीं – “सब ठीक है न?” मैंने कहा, “हाँ, बस थोड़ा थक गई हूँ।” लेकिन माएँ झूठ मीलों दूर से पकड़ लेती हैं।

मैंने धीरे से कहा, “माँ… इस बार दिवाली जैसी फील नहीं आ रही।” माँ ने कोई बड़ा ज्ञान नहीं दिया, ना कहा “शुक्र मानो, सब साथ हैं।” बस मुस्कराईं और बोलीं, “जब मैं तेरी उम्र की थी, तब मुझे भी ऐसा ही लगा था।”

मैं हैरान – माँ को भी ऐसा फील हुआ था? वो बोलीं, “एक साल सब बिज़ी हो गए थे। घर सजा था, खाना बना था, लेकिन मन नहीं मान रहा था। मुझे लगा, शायद दिवाली बस बचपन की चीज़ है।”

मैंने पूछा, “फिर क्या किया आपने?” वो बोलीं, “थोड़ा रोई। फिर उठी, और सोचा – अगर पुरानी दिवाली नहीं आ रही,
तो नई बना लेती हूँ।” उन्होंने पड़ोसियों को बुलाया, म्यूज़िक चलाया, पापा के साथ लड्डू बनाए। और फिर बोलीं, “वो अलग थी, लेकिन दिवाली तो थी।”

मेरी नई दिवाली
मैंने भी ठान लिया – अब मूड खुद बनाऊँगी। कज़िन्स को मैसेज किया -“9 बजे वीडियो कॉल। लूडो या ट्रुथ-ऑर-डेयर। नो बोरिंगनेस।” रोहन ने भेजा -“हारने वाला दिवाली डांस करेगा।” डील!

भाई के कमरे में घुसी – “चल नया प्लेलिस्ट बनाते हैं, डांस और आरती मिक्स।” उसने आँखें घुमाईं, पर मुस्कराया।

फिर बाहर बैठकर रंगोली बनाने लगी। परफेक्ट नहीं बनी, लेकिन सच्ची लगी।

और पता है क्या? सन्नाटा रहा, पर अकेलापन नहीं रहा।

अगर तुम्हें भी ऐसा लग रहा है…
शायद इस बार तुम्हारी दिवाली भी थोड़ी बदल गई है। शायद कुछ लोग नहीं हैं, या तुम किसी नए शहर में हो। कोई बात नहीं।

त्योहार तभी खत्म नहीं होते जब बदल जाते हैं। कभी-कभी वो बस चाहते हैं कि हम भी थोड़े बदलें, थोड़े बड़े हो जाएँ।

तो अगर इस बार की दिवाली अलग लग रही है, फिर भी दीये जलाओ, लोगों को कॉल करो, और मुस्कराओ – चाहे हल्की सी ही सही।

क्योंकि दिवाली सिर्फ बाहर की रोशनी नहीं होती, वो वो उजाला भी है – जो तुम अपने अंदर जलाते हो।

हैप्पी “अपने-अपने तरीके वाली” दिवाली! 

 

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