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सुकून वाला कोना

असली ज़िंदगी की रपुंज़ल: नियम, वाई-फाई और टीनेज ड्रामा

 एक लड़की टावर में बंद थी… लेकिन ये कोई जादू वाला टावर नहीं था। ये था उसका घर, जहाँ हर चीज़ के लिए नियम थे, वाई-फाई कभी भी बंद हो जाता था, और मम्मी-पापा कभी-कभी विलेन जैसे लगते थे। तारा को चाहिए थी आज़ादी, मज़ा और थोड़ा मस्ती लेकिन ये इतना आसान नहीं था।

एक बार की बात है, एक लड़की थी जिसका नाम तारा था। वो किसी डायन या किले में नहीं फँसी थी। उसका टावर था उसका घर, जहाँ उसके सख्त मम्मी-पापा के बहुत सारे नियम थे।

रात 9 बजे के बाद फोन नहीं। हफ़्ते के दिनों में दोस्तों से मिलना नहीं। तेज़ म्यूज़िक नहीं। रात में कुछ खाने की इजाज़त नहीं। मतलब मम्मी-पापा की हाँ के बिना कोई मस्ती नहीं! तारा को लगता था जैसे वो रपुंज़ल है जो टावर में फँसी हुई है। फर्क बस इतना था कि उसके टावर में वाई-फाई था, और जादू की चोटी की जगह उसके पास था होमवर्क और गिल्ट

शुरू में तारा को लगा कि वो इससे बच जाएगी। उसने सोचा कोई फिल्म जैसा सीन होगा, कोई दोस्त, भाई या शायद कोई मोटरबाइक वाला लड़का (फ्लिन राइडर जैसा) आएगा, उसे स्टारबक्स देगा और बोलेगा, “चलो भाग चलते हैं!”

पर रियल लाइफ में ऐसा कुछ नहीं हुआ। फ्लिन राइडर आया ही नहीं। और खिड़की से झूलकर भागना? वो भी नामुमकिन था। जब भी वो चुपके से कुछ करने की कोशिश भी करती थी तो मम्मी-पापा को पता लग ही जाता था, कभी मैसेज भेजते हुए, कभी स्नैक खाते हुए। और फिर? लंबे लेक्चर, खूब सारी डाँट और फ़ोन भी ज़प्त।

धीरे-धीरे तारा को सभी चीज़ें बोरिंग लगने लगी।
पेंटिंग – बोरिंग।
गिटार – रहने दो।
दोस्तों से चैट – मन नहीं है।
रील्स देखना – और भी स्ट्रेसफुल!

फिर उसके दिमाग ने भी बोलना शुरू कर दिया “तुम आलसी हो।”
“क्यों नहीं बनती अपनी कज़िन आयशा जैसी, जो अपना यूट्यूब चैनल चलाती है और फ्रेंच सीखती है?”

एक दिन शाम को तारा बहुत परेशान हो गई। उसने अपनी नोटबुक उठाया (फोन का ऐप नहीं) और सब लिख डाला — गुस्सा, बोरियत, और वो फँस जाने वाला एहसास जैसे वो किसी वीडियो में है: “घर में कैद: दिन 437”

लिखते-लिखते उसे समझ आया कि ये “टावर” सिर्फ मम्मी-पापा के नियम नहीं थे। वो खुद भी खुद से बहुत ज़्यादा उम्मीदें रखती थी। वो सबसे अपनी तुलना करती रहती थी, दोस्तों, कज़िन्स और इंटरनेट वालों से। और अब वो थक गई थी।

फिर आया उसका रपुंज़ल मोमेंट!
उसे भागने की ज़रूरत नहीं थी, उसे चाहिए था एक प्लान:

  • मम्मी-पापा से शांति से बात करके थोड़ी देर बाहर रुकने की इजाज़त माँगना।

  • कमरे में म्यूज़िक सुनना, पर इतना तेज़ नहीं कि सबको सुनाई दे।

  • थोड़ा टाइम निकालना अपने लिए — पेंटिंग करना, गिटार बजाना, भाई को परेशान करना या अपना फेवरेट शो देखना (रियलिटी शो भी चलेगा)।

धीरे-धीरे उसका घर अब जेल जैसा नहीं लगा। उसे लगा कि दीवारें हमेशा कैद नहीं होतीं — कभी-कभी वहीं हमें सिखाती हैं कैसे बात करना, इंतज़ार करना और थोड़ा-थोड़ा आज़ाद रहना।

समय के साथ सब थोड़ा बदल गया। वो रातोंरात बहुत आज़ाद नहीं हुई, लेकिन अब वो अपने दिन संभालने लगी। कुछ दिन अब भी ऐसे थे जब वो सोचती, “मैं ऐसी क्यों हूँ?”
पर अब उसके पास था हँसने का कारण, कुछ छोटे-छोटे ट्रिक्स और थोड़ी-सी आज़ादी।

और असली ट्विस्ट?

 तारा को कोई फ्लिन राइडर या जादू की चोटी नहीं चाहिए थी। उसे समझ आ गया कि असली मदद तो उसके अंदर ही है — उसकी हिम्मत, उसकी सोच और उसकी समझ।
टावर तो अब भी था, पर अब वो उसमें खुश रहना सीख गई थी।

कभी-कभी हीरो कोई और नहीं होता, तुम खुद होते हो! जो सीखते हो कैसे थोड़ा झुककर, हँसकर और स्मार्ट तरीके से अपने “टावर वाले दिनों” से बाहर निकला जाए।



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