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सुकून वाला कोना

उसकी बात ने मेरी आँखें खोल दीं

आज एक और टीनएजर – आरना – जो की गुडगाँव मैं रहती है – ने अपनी डायरी का एक पन्ना शेयर किया।इसमें उसने बताया कि कैसे हम सब कभी-कभी ऑनलाइन ठीक दिखने का नाटक करते हैं, और एक अचानक पढ़ी गई पोस्ट ने उसकी सोच बदल दी। कई बार किसी और की बात सुनकर हमें भी अपनी सच्चाई अपनाने की हिम्मत मिल जाती है।

प्रिय डायरी,

आज फिर मैं इंटरनेट पर बस यूं ही स्क्रोल कर रही थी। चिंता वाले मीम्स ढूंढ रही थी क्योंकि मन हल्का करने का वही एक तरीका लगता है। तभी मेरी नजर एक लेख पर पड़ी। यह एक सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर का लेख था, जिसे मैं पहले देख चुकी थी। शीर्षक में उसकी चिंता और एक आदत का ज़िक्र था जिसमें वह बार-बार अपनी स्किन को नोचती थी।

मैंने जिज्ञासावश क्लिक किया और पढ़ना शुरू कर दिया। लेख वैसा बिलकुल नहीं था जैसा मैंने सोचा था। मैंने एलिसा को पहले भी अपनी फ़ीड पर देखा था। वह हमेशा एकदम परफेक्ट दिखती थी। वैसी लड़की जिसे देखकर हम अपने आप की उससे तुलना करने लगते हैं। लेकिन इस लेख में उसने बहुत खुलकर अपनी चिंता और एक मानसिक स्थिति के बारे में लिखा था, जिसका नाम है डर्माटिलोमैनिया। इसमें लोग चिंता या तनाव में बार-बार अपनी स्किन नोचते हैं।

मुझे यह समस्या नहीं है, लेकिन उसने जो बात सोशल मीडिया पर ‘ठीक दिखने’ को लेकर कही वह मेरे दिल को छू गई। उसने लिखा कि आजकल सोशल मीडिया पर तारीफ पाने की चाह हमारी असली मानसिक और शारीरिक सेहत से भी ज़्यादा हो गई है। यह बात सच लगी। मैंने भी कई बार ऐसा किया है। जब मन बहुत भारी था, बेचैनी थी या बस सब उलझा हुआ लग रहा था तब भी इंस्टा स्टोरी डाल दी जैसे सब कुछ नॉर्मल है। कभी-कभी सच बोलने से ज़्यादा आसान होता है मुस्कराना।

उसने यह भी कहा कि सोशल मीडिया पर हर समय एकदम परफेक्ट दिखने का दबाव होता है, भले ही अंदर से सब बिखरा हुआ हो। उसने वो बात ज़ोर से कह दी जो हम सब चुपचाप सोचते हैं। यह देखकर अच्छा लगा कि इतनी बड़ी फॉलोइंग वाली कोई लड़की भी इतना निजी सच बोल सकती है। लगा कि शायद मैं भी थोड़ा ईमानदार हो सकती हूं।

सबसे अच्छी बात यह लगी कि उसने कहीं भी ऐसा नहीं दिखाया कि उसके पास सारे जवाब हैं। उसने बताया कि वह थेरेपी ले रही है, उसे खुद समझ नहीं आता कि वह कैसा महसूस कर रही है और वह अब भी सीख रही है। यह सब बहुत सच्चा लगा। ठीक होना कोई एक दिन की बात नहीं होती। यह उलझा हुआ और लंबा सफर होता है। और उसने यह बात छिपाई नहीं।

उसका लेख पढ़कर मैं रुक गई और सोचा उन सब पलों के बारे में जब मैंने सब ठीक होने का नाटक किया ताकि लोग मुझे बहुत भावुक या परेशान न समझें। खासकर इंटरनेट पर, ऐसा लगता है जैसे हमेशा मज़ेदार, शांत और बेफिक्र दिखना ज़रूरी है, भले ही अंदर से बिल्कुल उल्टा हो।

लेकिन इस लेख ने मुझे याद दिलाया कि ठीक न होना भी ठीक है। इसने मुझे वह एहसास दिया कि कोई मुझे समझता है। और शायद हम सबको कभी-कभी बस यही एहसास चाहिए होता है।

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